Wednesday 29 April 2015

प्रकृति चन्दन


दरअसल, सत्य तो यह है की ये पंक्तियाँ अपने बेटे को स्कूल की एक प्रतियोगिता में, स्वयं कि लिखी कविता बुलवाने की जिद में लिखी थीं| किन्तु जब शब्दों ने कागज़ पर उतरकर यह रूप लिया तब अहसास हुआ कि चाहे कोई भी युग, समय, स्तर अथवा विचारधारा रही हो, माता पिता सदा से ही अपने बच्चों के लिए इन विशिष्ट गुणों से परिपूर्ण होने कि कामना करते आये हैं| आज माँ के रूप में मेरी कामना भी कतई  अलग नहीं थी|
अपने घर परिवार के बच्चों को समर्पित कर रही हूँ अपनी यह कामना| और हाँ, अगर इन पंक्तियों में आप भी अपने मन कि बात महसूस करें, तो समर्पित कर सकते हैं, अपनी आँख के तारों को, यह मेरी पंक्ति...




 

प्रकृति चन्दन



सूरज की गर्मी में तपकर,
चाँद सा शीतल बन जाऊँ..

ह्रदय अम्बर सा विशाल बने,
और मन में दया की बरखायें..

सागर की गहराई पाऊँ,
अटल पर्वत बन दिखलाऊं..

धरा का धीर मुझे मिले,
और चरित्र नभ सा धवल बने..

ग्रहों की मुझे गति दे दो,
और ऋतुओं का सा प्राण दो..

फूलों की सुगंध बन जाऊँ,
हर दिल हर मन महकाऊँ..

ईश सुनो मेरा यह वंदन,
हर गुण सृष्टि का कर दो अर्पण..

सरल, सुदर्शन, उज्जवल जीवन,
अंग अंग को दे दो प्रकृति चन्दन||




Thanks for reading.
Copyright - Vindhya Sharma


Wednesday 22 April 2015

फ़िरदौस

एक मासूम, जिसने किताबों में कश्मीर को भारत का स्वर्ग पढ़ा, उसका बेहद खूबसूरत चित्रण व् तस्वीरें देखी और न जाने कितनी ही बार घर में, उस सपनो से सुन्दर शहर को घूमने और जाकर देखने की जिद की| फिर उसने जब उस सपनो के शहर के लहूलुहान होने, हिंसा से त्रस्त होने, रोज ही अनेक हत्याओं के अर्थात  भीषण आतंकवाद का निर्ममता पूर्वक शिकार होने के बारे सुना, पढ़ा और टीवी पर देखा तो वो डर के मारे कांप गई| 
२५-३० वर्ष पूर्व के कश्मीर के दयनीय व् मन को व्यथित कर देने वाले हालात किसी से छुपे नहीं हैं| उन हालातों का, मेरे १४-१५ बरस के मासूम मन पर जो प्रभाव पड़ा वो कागज़ पर पंक्तियों के रूप में उतर आया... इन दिनों जब कश्मीर में पाकिस्तान का झंडा लहराने, पाकिस्तान समर्थन में नारे लगाने, आतंकवाद व् हिंसा को उकसाने की ख़बरें पढ़ी तो, उन पंक्तियों को आपसे बाँटने का मन हो आया, जो हैं तो बचपन की कलम से लिखी, पर सच 
भी तो हैं...


फ़िरदौस 


कह फ़िरदौस गए जाने वाले जिसे,
नरक भी लगे अब कहना कठिन उसे..

जगह सुकून की तन्हाई ने ली,
बहार की जगह ललाई ने ली ...

शांति जहाँ अशांत हो गई है,
हंसी वहां खुद रो गई है...

डरती मौत है जहाँ जिंदगी से,
उठे है आस्था वहां बंदगी से...

हा !! कश्मीर वो सुन्दर कहाँ खो गया,
धैर्य भी अब अधीर हो गया ...

बुरी लगी ऐसी है नज़र उसे,
जो नरक भी लगे कहना कठिन इसे,
फ़िरदौस जाने वाले कह गए जिसे!!!

Thanks for reading.
Copyright@Vindhya Sharma

Saturday 11 April 2015

मोदी से नाराज़ हूँ

कई बार मन की भावनाओं को भूमिका की आवश्यकता नहीं होती, क्यूँकि कई भाव स्वाभाविक  तरीके से ही व्यक्त हो जाते हैं... बिना किसी स्पष्टीकरण के...ठीक उसी तरह जिस तरह मेरी नाराजगी से भरी हुई यह पंक्ति.


 

मोदी से नाराज़ हूँ

तेरे वाचन से आश्वासन से, दिल होता बड़ा प्रभावित है...
बस प्रसाद अब मिलने को है, रोम रोम आशान्वित है...

दिखता कुछ खास नहीं, पर फिर भी मन ये मान रहा...
अच्छे दिनों की खिचड़ी को, तू धीरे धीरे रांध रहा ...

पर, पैदा की यह क्या उलझन नई...
अब तो मेरी भी भृकुटि तन गई...

जा मुकुट उसके हवाले किया, जो दुश्मन का गुणगान करे...
क्यों, उससे हाथ मिला लिया, जो ना तिरंगे का मान धरे...

अनेक प्रयास-विचार किये, मन को कितने सुझाव दिए...
पर फिर भी बात न जंच रही..
इस अजब निर्णय की कोई भी...
तक़रीर अब न पच रही...

खूब मनन मंथन के बाद, स्वीकार कर रही आज हूँ...
चाहे दलील कुछ रही हो, पर मै मोदी से नाराज़ हूँ||




Copyright-Vindhya Sharma

Thursday 2 April 2015

मन

मन मानना ही नहीं चाहता कभी दिमाग की बात, थामना ही नहीं चाहता अपनी उड़ान को, यह नटखट मन क्या कुछ करने को नहीं मचलता| सदा ही जवान और मस्तमौला रहने वाला यह मन शायद कभी उम्रदराज़ भी नहीं होता| ऐसा लगता है कि जैसे अपने डर को ठेंगा सा दिखलाता हुआ यह, आज भी, अपनी उड़ान कम करने को कतई तैयार नहीं है, ठीक उसी तरह जिस तरह अठ्ठारह वर्ष पूर्व लिखी इन पंक्तियों से प्रतीत होता है कि मन की चंचलता कैसी थी| सपनो कि सुन्दर सी दुनिया में विचरते इस मन का तर्कों से कोई नाता नहीं|
मन के पंखों को परवाज़ देती मेरी यह पंक्तियाँ किसी सन्दर्भ कि याद तो नहीं दिलाती पर इतना जरूर जताती हैं कि न मन पर वश तब था न ही अभी है, और कहीं न कहीं हम सब का मन ऐसा ही होता है....है न ?

मन


 चंचल पखेरू इस मन के, पकड़ से मेरी परे हैं... सपने इनके सुनहरे, बारहों मास हरे हैं... उड़ें जा पहुँचे वहां, छिपी हैं मेरी चाहते जहाँ ... जो हैं निराधार, पर मन ये बावरा, कर देता इन्हे साकार... मन ये मरीचिका है, इसका मुझे पता है...

 पर उड़ाने मन कि ये बेहद, लगती हैं बड़ी सुखद... डर है तो बस यही, कि मन ये मेरा कहीं... हो न जाये निर्बल, अंततः गिर न जाये, मुहं के बल||






Copyright - Vindhya Sharma
Sketch courtesy - Cartoonzy