Sunday 18 October 2015

रानी बिटिया



पढ़ा था शायद कहीं, 'तपती धूप में पानी की फुहार सी होती हैं बेटिया'| दो अनमोल चिरागों से रोशन यह जीवन इस फुहार की ठंडक के अनुभव को तलाशता ही रहा है| एक बरस पूर्व, जब छोटी बहन की इस नवजात को पहली बार गोद में उठाया तो उस अनोखी अनुभूति की सुंदरता, नाजुकता, और भावुकता अंदर आ बसी| अब परदेस में बड़ी हो रही इस बिटिया को तस्वीरों में खिलखिलाते, मुस्कुराते भिन्न अंदाज़ों में देखती हूँ तो अंदर बसा हुआ यह आभास और भी धड़कने लगता है....
यह शायद ममता का अंश ही हो जो अठखेलियां करती इस बेटी को देख उतर गया इन पंक्तियों में.....





कितनी सारी बतियाँ करती,
बतियाँ करती अच्छी लगती ...

जैसे सुन्दर सी सुना रही कहानी,
देखो रानी बिटिया हो रही सयानी...

नज़र का काला टीका लगा दो,
 "माँ", इसे कहीं छुपा दो...

देख इसे मन हर्षाये,
न मेरी नज़र ही लग जाये...

राह तकती थकी अँखियों को,
आकर शीतल कर दे बिटिया
दादी नानी की बगिया को
महक चहक से भर दे चिड़िया 

दूर रहकर क्यों तरसा रही,
 ये गोद तुझे है बुला रही...
अब , देर ना कर, उड़ के आजा 

कितनी लोरी हैं तुझे सुनानी...
रानी बिटिया हो रही सयानी!!!!

Wednesday 7 October 2015

चुनावी मौसम (1)

एक समाचार पर नज़र जाते ही मन को बड़ी पीड़ा हुई आज| देश के महत्वपूर्ण प्रदेश में चुनाव होने को हैं| हर बार की तरह चुनाव के पूर्व वायदों से एक स्वप्निल सा वातावरण, राजनीतिक दलों द्वारा बनाया जाता रहा है, एक मायाजाल सा फैलाया जाता रहा है, तो आरोपों का पिटारा भी खोला जाता रहा है| पर हमारे ही एक नेता द्वारा यू.एन.ओ. को पत्र लिखकर, अपने ही देश में हस्तक्षेप की मांग करना बहुत ही अलग हो गया इस बार| बदलाव इस रूप में, निसंदेह ही सुखद नहीं है|

मुझे याद हो आई बाईस बरस पूर्व की वह बात, जब ऐसे ही चुनावी मौसम में किसी दल के नेता ने, चुनाव प्रचार के दौरान सूखाग्रस्त क्षेत्र में बारिश करने का वायदा कर डाला था| हँसते हुए मन से निकलकर कुछ पंक्तियाँ कागज़ पर मुस्कुरा गई थीं तब| जब तुलना की तो अतिश्योक्ति इस पुराने  रूप में, आज बुरी नहीं लगी|
सन्दर्भ तो भिन्न है परन्तु तनाव व पीड़ा के कष्ट में इन पंक्तियों का स्मरण आज भी मुस्कान दे गया तो सोचा क्यों न यह मुस्कान आपसे भी बाँट लूँ| उस वक्त ऐसे ही चुनावों के दौरान बने वातावरण में  मेरे 17-18 वर्षीय युवा मन ने अभिव्यक्त की थीं, मेरी यह पंक्ति...







चुनावी मौसम


पधारे नेताजी गांव अचानक ,
खबर यूँ फैली चारों ओर  ...
लगी हो जंगल में आग भयानक..

बच्चे, बूढ़े और पठ्ठे,
हुए पंचायत में इकठ्ठे...
बोले..
अब आये हो, क्या चुनाव साथ लाये हो?

अंदर से खिसियाते हुए,
पर ऊपर से मुस्कुराते हुए,
हो नम्रतम नेताजी बोले...
न हमसे कुछ भी छुपाओ,
समस्याएं अपनी हमे बताओ..
धर के उनपर अपना ध्यान,
करेंगे उनका हम समाधान...

बाबा एक बूढ़े बोले,
नल बिन मरते लोग भोले...

दिया नेताजी ने आश्वासन..
नल तो हमे लगवाना ही है...
यह तो कोई समस्या नहीं है|

हुआ पीछे से एक प्रहार,
सड़क नहीं है यहाँ सरकार|

बोले, बन रही सड़क भी भई,
कोई समस्या बताओ हमे नई|

बालक एक बोला ज्ञानी,
बरसता नहीं है यहाँ पानी...

पुलकित हो नेताजी चहके,
'औ' बाग़ बाग़ होकर महके,
बोले वे भरकर स्वांग ....
करेंगे पूरी तुम्हारी मांग...

मेघ भी हम बरसाएंगे,
जो चाहोगे करवाएंगे,
करेंगे हम तुम्हारा उद्धार..
पर,
शर्त करो हमारी स्वीकार...
कि, वोट तुम हमको ही दोगे
वरना मांगे अपनी खोवोगे |

ले लिया जब पक्का आश्वासन...
तो, डर उनके सब सफा हो गए...
ले विदा और हाथ हिला...
नेताजी बैठ कार में हवा हो गए !!

Friday 2 October 2015

खुद संग


 खुद संग


कुछ अहसासों की भूमिका नहीं दी जाती, सिर्फ अहसास किया जाता है| आप भी करिये प्रयास अहसास करने का कि खुद से मिलकर कभी कभी कैसे दृष्टि और दृष्टिकोण पूरा ही बदल जाता है, कुछ खोया हुआ पास ही मिल जाता है तो जो निकट ही था वो भ्रम साबित हो जाता है...इसलिए खुद से मिलते रहना बड़ा जरूरी होता है| कुछ ऐसे ही अनुभव को लिए हुए है मेरी यह पंक्ति....








इतनी उलझन खुद से मिल,
न पहले कभी एहसास हुई...

कुछ शिकवे हुए, कुछ गिले हुए,
कुछ बहस मुद्दत बाद हुई...

वो लम्हा इक इक गुजर लिया,
बीते पल की जब आवाज़ हुई...

कुछ फिरी समझ क्यों नादानी में,
क्यों पावन मन से घात हुई...

लरज़ते-गरज़ते शुबहों से,
न कश्मकश तो आज़ाद हुई...

पर...
जब खुद संग बिताये कुछ कुछ पल,
जब खुद से कुछ दिन बात हुई...

तो पहचान हो आई वो हर मुस्कान,
इस उदासी से थी जो उदास हुई ||