Monday 9 November 2015

बाबा

अल्प में भी असीमित की संतुष्टि, विपन्नता में भी सम्पन्नता का अहसास,  हर स्थिति में प्रसन्न रहने की विलक्षणता कहाँ से ढूंढ लेते थे आप 'बाबा' !
सागर की तरह विशद सकारात्मकता और अद्भुत आशावाद आज कितना दुर्लभ हो गया है परन्तु आपका तो पूरा व्यक्तित्व ही जैसे इन्ही तत्वों का बना हुआ था| बड़ा ही भाग्यशाली पाती हूँ स्वयं को की दादा श्वसुर के रूप में आपका स्नेह और आशीर्वाद पा सकी मै!
अगर आपके गुणों का अंश मात्र भी अपनी संतति में पा सकी तो धन्य हो जायेगा उनका जीवन और सफल हो जाएगी मेरी परवरिश !

शत शत नमन करते हुए, खुद को समर्पित करती, मेरी पंक्ति...








संपूर्ण, समृद्ध, संपन्न थे...
सकल  विश्वास से धन धन थे...

प्रेरणा दायी दृष्टि का,
हर कोण दिखाया था तुमने...
धन्य ये जीवन हुआ,
तुमसा छत्र जो पाया था हमने...

वंदन, नमन, स्मरण से,
तुमको आज पुकार रहे...
रोम रोम की श्रद्धा से,
पग आज पखार रहे...

अपने गुणों का अंश ही,
आशीष में प्रदान करो...
सदा ह्रदय पट पर बस,
"बाबा", पथ प्रकाशवान करो!!


Sunday 18 October 2015

रानी बिटिया



पढ़ा था शायद कहीं, 'तपती धूप में पानी की फुहार सी होती हैं बेटिया'| दो अनमोल चिरागों से रोशन यह जीवन इस फुहार की ठंडक के अनुभव को तलाशता ही रहा है| एक बरस पूर्व, जब छोटी बहन की इस नवजात को पहली बार गोद में उठाया तो उस अनोखी अनुभूति की सुंदरता, नाजुकता, और भावुकता अंदर आ बसी| अब परदेस में बड़ी हो रही इस बिटिया को तस्वीरों में खिलखिलाते, मुस्कुराते भिन्न अंदाज़ों में देखती हूँ तो अंदर बसा हुआ यह आभास और भी धड़कने लगता है....
यह शायद ममता का अंश ही हो जो अठखेलियां करती इस बेटी को देख उतर गया इन पंक्तियों में.....





कितनी सारी बतियाँ करती,
बतियाँ करती अच्छी लगती ...

जैसे सुन्दर सी सुना रही कहानी,
देखो रानी बिटिया हो रही सयानी...

नज़र का काला टीका लगा दो,
 "माँ", इसे कहीं छुपा दो...

देख इसे मन हर्षाये,
न मेरी नज़र ही लग जाये...

राह तकती थकी अँखियों को,
आकर शीतल कर दे बिटिया
दादी नानी की बगिया को
महक चहक से भर दे चिड़िया 

दूर रहकर क्यों तरसा रही,
 ये गोद तुझे है बुला रही...
अब , देर ना कर, उड़ के आजा 

कितनी लोरी हैं तुझे सुनानी...
रानी बिटिया हो रही सयानी!!!!

Wednesday 7 October 2015

चुनावी मौसम (1)

एक समाचार पर नज़र जाते ही मन को बड़ी पीड़ा हुई आज| देश के महत्वपूर्ण प्रदेश में चुनाव होने को हैं| हर बार की तरह चुनाव के पूर्व वायदों से एक स्वप्निल सा वातावरण, राजनीतिक दलों द्वारा बनाया जाता रहा है, एक मायाजाल सा फैलाया जाता रहा है, तो आरोपों का पिटारा भी खोला जाता रहा है| पर हमारे ही एक नेता द्वारा यू.एन.ओ. को पत्र लिखकर, अपने ही देश में हस्तक्षेप की मांग करना बहुत ही अलग हो गया इस बार| बदलाव इस रूप में, निसंदेह ही सुखद नहीं है|

मुझे याद हो आई बाईस बरस पूर्व की वह बात, जब ऐसे ही चुनावी मौसम में किसी दल के नेता ने, चुनाव प्रचार के दौरान सूखाग्रस्त क्षेत्र में बारिश करने का वायदा कर डाला था| हँसते हुए मन से निकलकर कुछ पंक्तियाँ कागज़ पर मुस्कुरा गई थीं तब| जब तुलना की तो अतिश्योक्ति इस पुराने  रूप में, आज बुरी नहीं लगी|
सन्दर्भ तो भिन्न है परन्तु तनाव व पीड़ा के कष्ट में इन पंक्तियों का स्मरण आज भी मुस्कान दे गया तो सोचा क्यों न यह मुस्कान आपसे भी बाँट लूँ| उस वक्त ऐसे ही चुनावों के दौरान बने वातावरण में  मेरे 17-18 वर्षीय युवा मन ने अभिव्यक्त की थीं, मेरी यह पंक्ति...







चुनावी मौसम


पधारे नेताजी गांव अचानक ,
खबर यूँ फैली चारों ओर  ...
लगी हो जंगल में आग भयानक..

बच्चे, बूढ़े और पठ्ठे,
हुए पंचायत में इकठ्ठे...
बोले..
अब आये हो, क्या चुनाव साथ लाये हो?

अंदर से खिसियाते हुए,
पर ऊपर से मुस्कुराते हुए,
हो नम्रतम नेताजी बोले...
न हमसे कुछ भी छुपाओ,
समस्याएं अपनी हमे बताओ..
धर के उनपर अपना ध्यान,
करेंगे उनका हम समाधान...

बाबा एक बूढ़े बोले,
नल बिन मरते लोग भोले...

दिया नेताजी ने आश्वासन..
नल तो हमे लगवाना ही है...
यह तो कोई समस्या नहीं है|

हुआ पीछे से एक प्रहार,
सड़क नहीं है यहाँ सरकार|

बोले, बन रही सड़क भी भई,
कोई समस्या बताओ हमे नई|

बालक एक बोला ज्ञानी,
बरसता नहीं है यहाँ पानी...

पुलकित हो नेताजी चहके,
'औ' बाग़ बाग़ होकर महके,
बोले वे भरकर स्वांग ....
करेंगे पूरी तुम्हारी मांग...

मेघ भी हम बरसाएंगे,
जो चाहोगे करवाएंगे,
करेंगे हम तुम्हारा उद्धार..
पर,
शर्त करो हमारी स्वीकार...
कि, वोट तुम हमको ही दोगे
वरना मांगे अपनी खोवोगे |

ले लिया जब पक्का आश्वासन...
तो, डर उनके सब सफा हो गए...
ले विदा और हाथ हिला...
नेताजी बैठ कार में हवा हो गए !!

Friday 2 October 2015

खुद संग


 खुद संग


कुछ अहसासों की भूमिका नहीं दी जाती, सिर्फ अहसास किया जाता है| आप भी करिये प्रयास अहसास करने का कि खुद से मिलकर कभी कभी कैसे दृष्टि और दृष्टिकोण पूरा ही बदल जाता है, कुछ खोया हुआ पास ही मिल जाता है तो जो निकट ही था वो भ्रम साबित हो जाता है...इसलिए खुद से मिलते रहना बड़ा जरूरी होता है| कुछ ऐसे ही अनुभव को लिए हुए है मेरी यह पंक्ति....








इतनी उलझन खुद से मिल,
न पहले कभी एहसास हुई...

कुछ शिकवे हुए, कुछ गिले हुए,
कुछ बहस मुद्दत बाद हुई...

वो लम्हा इक इक गुजर लिया,
बीते पल की जब आवाज़ हुई...

कुछ फिरी समझ क्यों नादानी में,
क्यों पावन मन से घात हुई...

लरज़ते-गरज़ते शुबहों से,
न कश्मकश तो आज़ाद हुई...

पर...
जब खुद संग बिताये कुछ कुछ पल,
जब खुद से कुछ दिन बात हुई...

तो पहचान हो आई वो हर मुस्कान,
इस उदासी से थी जो उदास हुई ||

Sunday 7 June 2015

चुनमुन चूहा



पढ़ने पर तो हास्य कविता का सा बोध कराती हैं मेरी यह पंक्तियाँ परन्तु सत्य बताऊँ.....कुछ 4-5 वर्ष पहले घर में चूहे ने सेंध मारकर कितने ही दिन मेरे घर को अपने कब्ज़े में रखा और मेरी स्थिति ठीेक ऐसी ही हास्यास्पद कर दी थी| इसीलिए तो कलम से यह पंक्तियाँ हँसते मुस्कुराते हुए कागज़ पर उतर गई थी|

अभी मुझे किसी ने सन्देश भेजा की काफी गंभीर दिखता है मेरा व्यक्तित्व , क्यूंकि गंभीर ही लिखा है अभी तक| पर वास्तव में ऐसा तो नहीं है....यही सिद्ध करने की कोशिश में आपसे बाँट रही हूँ अपनी मुस्कान, माध्यम है ये मुस्कुराती मेरी पंक्ति......


चुनमुन चूहा 



चुनमुन चूहा बड़ा शैतान, घर में घुसता सीना तान
जो भी उसको भाता है, सबको चट कर जाता है ....
झाड़ू पकडे पीछे दौड़ाये, मम्मी को करता हैरान
चुनमुन चूहा बड़ा शैतान!!!

उसे पकड़ने पिंजरा लाये , कांटे में रोटी अटकाए...
रोटी बाहर ला चबाये, पिंजरे को ठेंगा दिखलाये...
सारी कोशिश हुई नाकाम, चुनमुन चूहा बड़ा शैतान!!

उसे मारने 'रेट किल' (rat kill) लाये,
चीनी में उसको लिपटाये
बिस्कुट सा 'रेट किल' को चबाये,
सारे पाइजन (poison) फुस्सम्फान,
चुनमुन चूहा बड़ा शैतान!!!

रोज ही करते ढेरो उपाय ,
 कैसे उससे मुक्ति पाये ...
सारे उपाए धता बताये,
मुँह बना के हमे चिड़ाए .....

हमे चिड़ा के रोज छकाए, अपने पीछे कितना भगाए
है कोई जो हमे बचाये, मुश्किल में पड़ी है  जान
चुनमुन चूहा बड़ा शैतान...





Wednesday 29 April 2015

प्रकृति चन्दन


दरअसल, सत्य तो यह है की ये पंक्तियाँ अपने बेटे को स्कूल की एक प्रतियोगिता में, स्वयं कि लिखी कविता बुलवाने की जिद में लिखी थीं| किन्तु जब शब्दों ने कागज़ पर उतरकर यह रूप लिया तब अहसास हुआ कि चाहे कोई भी युग, समय, स्तर अथवा विचारधारा रही हो, माता पिता सदा से ही अपने बच्चों के लिए इन विशिष्ट गुणों से परिपूर्ण होने कि कामना करते आये हैं| आज माँ के रूप में मेरी कामना भी कतई  अलग नहीं थी|
अपने घर परिवार के बच्चों को समर्पित कर रही हूँ अपनी यह कामना| और हाँ, अगर इन पंक्तियों में आप भी अपने मन कि बात महसूस करें, तो समर्पित कर सकते हैं, अपनी आँख के तारों को, यह मेरी पंक्ति...




 

प्रकृति चन्दन



सूरज की गर्मी में तपकर,
चाँद सा शीतल बन जाऊँ..

ह्रदय अम्बर सा विशाल बने,
और मन में दया की बरखायें..

सागर की गहराई पाऊँ,
अटल पर्वत बन दिखलाऊं..

धरा का धीर मुझे मिले,
और चरित्र नभ सा धवल बने..

ग्रहों की मुझे गति दे दो,
और ऋतुओं का सा प्राण दो..

फूलों की सुगंध बन जाऊँ,
हर दिल हर मन महकाऊँ..

ईश सुनो मेरा यह वंदन,
हर गुण सृष्टि का कर दो अर्पण..

सरल, सुदर्शन, उज्जवल जीवन,
अंग अंग को दे दो प्रकृति चन्दन||




Thanks for reading.
Copyright - Vindhya Sharma


Wednesday 22 April 2015

फ़िरदौस

एक मासूम, जिसने किताबों में कश्मीर को भारत का स्वर्ग पढ़ा, उसका बेहद खूबसूरत चित्रण व् तस्वीरें देखी और न जाने कितनी ही बार घर में, उस सपनो से सुन्दर शहर को घूमने और जाकर देखने की जिद की| फिर उसने जब उस सपनो के शहर के लहूलुहान होने, हिंसा से त्रस्त होने, रोज ही अनेक हत्याओं के अर्थात  भीषण आतंकवाद का निर्ममता पूर्वक शिकार होने के बारे सुना, पढ़ा और टीवी पर देखा तो वो डर के मारे कांप गई| 
२५-३० वर्ष पूर्व के कश्मीर के दयनीय व् मन को व्यथित कर देने वाले हालात किसी से छुपे नहीं हैं| उन हालातों का, मेरे १४-१५ बरस के मासूम मन पर जो प्रभाव पड़ा वो कागज़ पर पंक्तियों के रूप में उतर आया... इन दिनों जब कश्मीर में पाकिस्तान का झंडा लहराने, पाकिस्तान समर्थन में नारे लगाने, आतंकवाद व् हिंसा को उकसाने की ख़बरें पढ़ी तो, उन पंक्तियों को आपसे बाँटने का मन हो आया, जो हैं तो बचपन की कलम से लिखी, पर सच 
भी तो हैं...


फ़िरदौस 


कह फ़िरदौस गए जाने वाले जिसे,
नरक भी लगे अब कहना कठिन उसे..

जगह सुकून की तन्हाई ने ली,
बहार की जगह ललाई ने ली ...

शांति जहाँ अशांत हो गई है,
हंसी वहां खुद रो गई है...

डरती मौत है जहाँ जिंदगी से,
उठे है आस्था वहां बंदगी से...

हा !! कश्मीर वो सुन्दर कहाँ खो गया,
धैर्य भी अब अधीर हो गया ...

बुरी लगी ऐसी है नज़र उसे,
जो नरक भी लगे कहना कठिन इसे,
फ़िरदौस जाने वाले कह गए जिसे!!!

Thanks for reading.
Copyright@Vindhya Sharma

Saturday 11 April 2015

मोदी से नाराज़ हूँ

कई बार मन की भावनाओं को भूमिका की आवश्यकता नहीं होती, क्यूँकि कई भाव स्वाभाविक  तरीके से ही व्यक्त हो जाते हैं... बिना किसी स्पष्टीकरण के...ठीक उसी तरह जिस तरह मेरी नाराजगी से भरी हुई यह पंक्ति.


 

मोदी से नाराज़ हूँ

तेरे वाचन से आश्वासन से, दिल होता बड़ा प्रभावित है...
बस प्रसाद अब मिलने को है, रोम रोम आशान्वित है...

दिखता कुछ खास नहीं, पर फिर भी मन ये मान रहा...
अच्छे दिनों की खिचड़ी को, तू धीरे धीरे रांध रहा ...

पर, पैदा की यह क्या उलझन नई...
अब तो मेरी भी भृकुटि तन गई...

जा मुकुट उसके हवाले किया, जो दुश्मन का गुणगान करे...
क्यों, उससे हाथ मिला लिया, जो ना तिरंगे का मान धरे...

अनेक प्रयास-विचार किये, मन को कितने सुझाव दिए...
पर फिर भी बात न जंच रही..
इस अजब निर्णय की कोई भी...
तक़रीर अब न पच रही...

खूब मनन मंथन के बाद, स्वीकार कर रही आज हूँ...
चाहे दलील कुछ रही हो, पर मै मोदी से नाराज़ हूँ||




Copyright-Vindhya Sharma

Thursday 2 April 2015

मन

मन मानना ही नहीं चाहता कभी दिमाग की बात, थामना ही नहीं चाहता अपनी उड़ान को, यह नटखट मन क्या कुछ करने को नहीं मचलता| सदा ही जवान और मस्तमौला रहने वाला यह मन शायद कभी उम्रदराज़ भी नहीं होता| ऐसा लगता है कि जैसे अपने डर को ठेंगा सा दिखलाता हुआ यह, आज भी, अपनी उड़ान कम करने को कतई तैयार नहीं है, ठीक उसी तरह जिस तरह अठ्ठारह वर्ष पूर्व लिखी इन पंक्तियों से प्रतीत होता है कि मन की चंचलता कैसी थी| सपनो कि सुन्दर सी दुनिया में विचरते इस मन का तर्कों से कोई नाता नहीं|
मन के पंखों को परवाज़ देती मेरी यह पंक्तियाँ किसी सन्दर्भ कि याद तो नहीं दिलाती पर इतना जरूर जताती हैं कि न मन पर वश तब था न ही अभी है, और कहीं न कहीं हम सब का मन ऐसा ही होता है....है न ?

मन


 चंचल पखेरू इस मन के, पकड़ से मेरी परे हैं... सपने इनके सुनहरे, बारहों मास हरे हैं... उड़ें जा पहुँचे वहां, छिपी हैं मेरी चाहते जहाँ ... जो हैं निराधार, पर मन ये बावरा, कर देता इन्हे साकार... मन ये मरीचिका है, इसका मुझे पता है...

 पर उड़ाने मन कि ये बेहद, लगती हैं बड़ी सुखद... डर है तो बस यही, कि मन ये मेरा कहीं... हो न जाये निर्बल, अंततः गिर न जाये, मुहं के बल||






Copyright - Vindhya Sharma
Sketch courtesy - Cartoonzy

Wednesday 25 March 2015

My Humble Tribute to Shaheed Hemraj




शहीद भगत सिंह व उनके साथियों के साथ, आज याद करें उस वीर जवान हेमराज को भी जिसने पिछले ही बरस वतन के लिए अपना शीश कटा दिया पर झुकाया नहीं| पाकिस्तानी सेना ने इस वीर का सिर धड़ से अलग करके जहाँ अपने कायर व कमजोर होने का सबूत दिया वहीँ इस वीर सपूत ने, अपना सिर कटने से ठीक पहले, "भारत माता की जय" का जयकारा लगाकर भारत माता का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया|

कई बार सोचती हूँ कि आखिर किस मिटटी के बने होते हैं यह वीर और आखिर चलता क्या है उनके मन में?

शहीद हेमराज की शहादत के कुछ माह बाद, एक दिन, बेटे ने स्कूल में होने वाले "फैंसी ड्रेस कॉम्पिटिशन" (fancy dress competition) के लिए जब हेमराज का रूप लिया और 'भारत माता कि जय' का नारा लगाया तो शायद वीर हेमराज के हृदय की आवाज़ और रगों के खौलते रक्त ने इन पंक्तियों का रूप ले लिया|  इस वीर के मन का मंथन करने का प्रयास करते हुए मेरी यह पंक्तियाँ समर्पित कर रही हूँ उन तमाम देशभक्तों को, जो कल भगत सिंह व आज हेमराज कि भांति देश के लिए अपना सिर कटाने को सदा तैयार रहते हैं पर इसे झुकाना, न इन्हे मंजूर था न है !!

शत शत नमन करती मेरी यह पंक्तियाँ...


                                                भारत माता की जय .....भारत माता की जय






भारत माता की जय .....भारत माता की जय 
गूंजा करता सदा यही माता मेरे कर्णो में...

रग-रग तूने सींची माता पग-पग तुझसे संवरा है,
हर कण तेरा पावन माता, हर कण की है तू विधाता ....

सौगंध तेरी न रुकने दूंगा, तेरे आँचल की सब लहरों को...
शपथ मुझे सीने पर लूंगा दुश्मन के सब कहरों को ...

तुझपर मरकर मिट-मिट जाना, चाहूँ सारे जन्मों में...
 देशभक्ति का लहू खौलता माता मेरी धरणो में ....

आँख उठा देखा जिसने, लिखा जायेगा मरणों में...
तेरी रक्षा करते जीना-मरना, आता मेरे धर्मो में...

ऐसे कई शीश न्यौछावर...ऐसे कई शीश न्यौछावर...
माता तेरे चरणो में ...माता तेरे चरणो में!!

Copyright-Vindhya Sharma

Thursday 5 March 2015

जन्म लेना ही है साहस

 8 मार्च, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के निकट आते ही विभिन्न समारोहों का आयोजन व उनमे महिलाओं का महिमामंडन, वर्षों से चली आ रही एक सुनियोजित सी परंपरा है| उन्नति पथ पर अपनी राह संवारते आगे बढ़ती महिला इन आयोजनों को, मुड़कर देखती जरूर है किन्तु मुस्कुरा कर आगे बढ़ जाती है| उसकी यह मुस्कराहट इस महिमामंडन के लिए होती है| हर क्षेत्र के विभिन्न श्रेष्ठ पदों को संभाल-संवार रही महिलायें, आज भी गर्व से तो कभी गंभीरता से, अपने स्त्री जन्म के विषय में सोचती जरूर हैं| अपने एक ही जीवन में, अनेक सीमाओं के अंतर्गत, कितनी ही भूमिकाओं का निर्वहन कुशलता व प्रसन्नतापूर्वक कर रही है, आज भी महिला|

२० वर्ष पूर्व की याद मन को ताजा सा स्पर्श देती है, जब कॉलेजों में, सत्ताइसवें अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के उपलक्ष्य में, "नारी होने का अहसास" विषय पर विभिन्न संगोष्ठियों व कार्यशालाओं का आयोजन किया जा रहा था व छात्र छात्राओं से भी विचार आमंत्रित किये जा रहे थे| अपनी मित्र के साथ, इस दिए गए विषय के दर्शन को सहानुभूति, नाराजगी, प्रश्नचिन्ह तो कभी गर्व के भावों के साथ विमर्श करते हुए कुछ पंक्तियाँ स्वतः ही कागज़ पर उतर आईं| इन पंक्तियों से जुडी एक सुखद स्मृति यह भी है कि जब मैने इन्हे समारोह में  भिजवाया तो कई जानी मानी कवियत्रियों की कविताओं से सुसज्जित एक पुस्तक में इन्हे , प्रकाशन हेतु स्थान दिया गया|
'एक जीवन में अनेक जन्मों का संगम", यह सत्य मेरी लिखी इन बरसों पुरानी पंक्तियों में आज भी, उतनी ही  सच्चाई से धड़क रहा है न ..






जन्म लेना ही है साहस


बालिका एक,
बेचैनी को मन ही में सहती है...
शहनाइयों के शोर में,
खुद से यह कहती है...

'है मौसम परेशां सा,
लगे अब जीवन मेहमां सा,
परसों ही दुनिया में आये हैं,
कल ही तो थोड़ा मुस्काये हैं...

और आज....
एक कहानी खत्म..

कल दूसरा मेरा जनम है,
निभानी विवाह की रसम है||'

और दुनिया,
वैसी ही रहती है...

पर,
बालिका वही,
शादी बाद, बन औरत यह कहती है...

'है आभास मुझे खुद के बदलने का..
फूलों के महकने और चिड़ियों के चहकने का...
सत्य ही किसी का ये कथन है...
ख़ुशी और डर का ये संगम है...
कल तीसरा मेरा जनम है
देना किसी को नया जीवन है||'

पूछते हमसे जो हैं नारी होने का एहसास...
कहो उन्हें, यह रूप ले जन्मना ही है साहस

कई जन्मों- उपजन्मों का नाम स्त्री है,
दुर्गा तो कभी ये कहलाई सती है...

एक जन्म माँ से लिया,
जन्म दूजा, विवाह ने दिया...
बन माँ स्वयं, पाया जन्म तीजा ....

एक जीवन में कई जन्मों के लक्षण 
सत्य है, होना स्त्री है विलक्षण !!
होना स्त्री है विलक्षण !!





Thanks for reading my words. 

Thursday 19 February 2015

वक्त

अपने किसी खास का दुःख हमको भी कितना दुखी कर जाता है न...और उसके दुःख को किसी भी तरह कम न कर पाने की वह विवशता और भी दुखदायी होती है| शायद हर व्यक्ति अपने तरीके से इस स्थिति को संभालता या सामना करता है|
मैं भी अपनी उस ख़ास को धीरज से अच्छे वक्त का इन्तजार करने की सलाह देने के आलावा कुछ नहीं कर सकी थी| पर आज संतुष्ट हूँ, जब देखती हूँ कि उसके सब्र को वक्त ने अपनी कसौटी से परख कर खरा बना दिया| आज उसके चेहरे पर खिलती हंसी वक्त कि दी ख़ुशी है|
मुझे याद है, सही सत्रह वर्ष पूर्व, कितनी आसानी से मैने उसे सही वक्त का इंतज़ार करने कि सलाह दे दी थी, कुछ इस तरह.....




आंसू आँखों का,
मरहम ज़ख्मों का,
ओठों का गुलाब वक्त है...

उम्र दोस्ती की,
बुनियाद रिश्तों की,
दिलों की चाहत वक्त है...

गुजरता लम्हा,
धड़कती धड़कन,
पहर रात का वक्त है...

वो तेरी सिसकी,
ये तेरी चुप्पी,
देखता सबकुछ वक्त है...

सुन 'मनु-संतान',
तुझसे भी बलवान,
पहचान तेरी हर ,
वक्त है...

वक्त है महान,
देगा तुझे मुस्कान,
पर मांगता कुछ.....
वक्त है !!



Thank you for reading.
 Pls read my words, in rythem, on woman- chote chote sukh,  Astitv,  mahila suraksha
Copyright-Vindhya Sharma

Thursday 12 February 2015

जरूरी

अपनी अपेक्षाओं, प्राथमिकताओं की अलग ही स्वप्निल सी दुनिया बनाकर, उसमे विचरण करती आज की युवा पीढ़ी में राजनीतीक दर्शन के प्रति अचानक ही उत्सुकता सी पैदा हुई है| निसंदेह राजनीति के पटल पर अकस्मात् ही उभरे दो व्यक्तियों की महत्वपूर्ण भूमिका है इसमें|
प्रसन्नता की बात है की दोनों की ही दृष्टि व् दृष्टिकोण अपने अपने तरीके से लुभाता है लोगों को|  यही तो वजह है जिसके कारण दोनों को जनता का समर्थन हाथ खोलकर और विश्वास आँख बंद करके मिला, और इतना मिला की संख्याएँ ठिठक गईं| समान मंजिल को तकती, दो धारायें बह निकली हैं, भले ही राहें भिन्न हैं, पर सब जानते हैं कि समागम का स्थान तो एक ही है|
तीक्ष्ण निगाहों में आशाएँ जागी हैं अनेक...
आज संपूर्ण राजनीती में छाए हुए इन दोनों नव विश्वास के सूत्रधारों को, जिन्हे परिचय की आवश्यकता नहीं है, चेताते हुए, समर्पित कर रही हुँ अपनी यह पंक्ति ...


जरूरी 



स्फुटित स्मृत भोर में, चिंतन का है तम जरुरी,
तपते विशद उदभास का, अब होना है मद्धम जरूरी...

खिलती कलियों के उपवन में, जैसे ढलता सा यौवन जरूरी,
वैसे ठंडी सौंधी बयार चली तो, है आंधी भी प्रचंड जरूरी...

'स्व' प्रदर्शन प्रचार में, कुछ नीति हों प्रछन्न जरूरी,
विजय मद अट्हास का, कर गंभीर सा मंथन जरूरी...

जो दी पताका लहराती तो, रखे पैनी वो चितवन जरूरी,
उद्दंड, उद्वेग उदगार में, अब कर विनय उत्पन्न जरूरी...

तन जरूरी, मन जरूरी, जीवन का हर रंग जरूरी,
नव उज्जवल आगाज़ से, हर वचन हो संपन्न जरूरी |||


Thank you for reading.
To read my Words, in rythem, on politics pls go. Mahila surksha, Kejri fir se
Copyright-Vindhya Sharma



Monday 9 February 2015

अस्तित्व

सबसे कम काम में आने वाली ताक से, जब बरसों पुरानी उस डायरी को आज उठाया तो पलटते हुए पन्ने, अनायास ही उन पंक्तियों पर जा रुके, जो कि नवयौवन के उस अजब से सुन्दर दौर में, इन पन्नों पर उतर आईं थीं | वह एहसास लड़कपन के उस आकर्षण का, आज भी बिसरा हुआ सा, कहीं तो छुपा बैठा होगा, जब कल्पना में हम सपनों को जीया करते थे |
होठों पर आई मुस्कान को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया मैंने | याद हो आया कि कैसे अपनी उस प्यारी मित्र को झंझोड़ा था, उसके इकतरफा, पागल से मोह को, आत्माभिमान का अक्स दिखाकर, पाश से मुक्त करना चाहा था|
आज पढ़ने पर अतिश्योक्ति सी जान पड़ती ये चंद पंक्तियाँ, अपने सन्दर्भ को ताज़ा सा कर रही हैं, मेरे मन में| शायद इसी लिए इस अहसास को आपसे बाँटने के लोभ का संवरण नहीं कर पा रही मैं |

कुछ बीस वर्ष पूर्व, अपनी मित्र को समर्पित की थीं मैंने ये पंक्तियाँ......


अस्तित्व 

चाहूँ  क्यूँ ...बनूं पसंद किसी की ,
मिटाऊं क्यूूँ...इच्छायें खुद ही की...

क्यूँ भागूं मैं पीछे उसके,
जो हर पल भरमाता है...

तकती क्यूँ रहूँ राह उसकी,
जो छोड़, दूर चला जाता है ...

क्यूूँ बदलूं मैं खातिर किसी के,
सह क्यूूँ लूं सारे तोड़ ज़िंदगी के...

क्यूूँ सोचूँ करे कोई स्वीकार, 
समझूँ क्यूूँ ख़ुशी का इसे द्वार...

जीवन यदि ये मेरा है तो,
क्यूूँ हक़ इसपर औरों का है...

 इतने 'क्यूूँ', पर उत्तर नहीं है,
उसपर जहाँ साधे चुप्पी है...

कोई तो समझे आखिर ये, 
कि अस्तित्व तो मेरा भी है...



  


Copyright-Vindhya Sharma

Thursday 5 February 2015

महिला सुरक्षा (केजरीवाल जी को समर्पित)




निर्भयाओं की फेहरिस्त नहीं खोल रही यहाँ, किन्तु इस सत्य को विमर्श हेतु प्रस्तुत जरूर करना चाह रही हुँ कि बढ़ते हुए बलात्कार जिस तेजी से सांख्यिकी को लजा रहे हैं, क्या वह तेजी महिलाओं के आगे बढ़ते क़दमों को हड़बड़ा नहीं रही? .....अवश्य रही है |
यौन शोषण के आंकड़ों को अपनी गली, अपने पड़ोस से निकलता देखती हर महिला, इस कृत्य और इसके बाद होने वाले  राजनीतिक- सामाजिक तमाशे से सहम कर रह जाती है|
चौंक चौंक कर कदम बढ़ाती वह अपने मन कि यह बात कह रही है,  सही व्यक्ति कि आस में उसे, जो जान पड़ता है कि जरूर कुछ कर जायेगा, मेरी इस पंक्ति के माध्यम से....
इस तरह....


मेरा विश्वास





कैसे उन्नत हो घर वो, जहाँ नारी शोषित होती है...
आज निर्भया हर नारी में डरी सहमी सी बैठी है...
बढ़ते क़दमों का विश्वास, चौकन्न सदा ही रहता है...
क्या कोई नहीं साथ खड़ा? प्रश्न मायूस हो कहता है...

आज तुझसे है उम्मीद जगी..
कुछ हल दिखा...
प्रबल दिखा...

है कुछ शक्ति तेरी इच्छा में, ये आभास तुझसे आता है...
इक इस आभास को विश्वास दिला...
न धता बता...
ला पता बता...

सहानुभूति की भूख नहीं, हर्जाना न आस हमारी है...
हर बलात्कारी नपुंसक हो जाये,
ये भय उपजा...
ये खौफ जगा...

बातें बहुत सी सुनी हमने, धरने भी खूब देख लिए...
पर घर की इक इक नारी को,
कुछ न सम्बल मिला...
 न बल मिला..

है तुझमे बूता,
क्षमता दिखती तुझमे...
कुछ साहस सा तो धड़कता है...

ले बटोर तू सारा माद्दा,
मुझे सम्मान दिला ...
ला मान दिला...

न कोई निर्भया फिर बन पाये,
बन निर्भया न कोई मर जाये....
ले जिम्मा अपने कन्धों पर...
न वही रसम निभा...
ले कसम खा....

अवसर तुझको देती हूँ,
बातें न बनाना,करके दिखाना...
जो मौका मिला...
तो कर दिखा,
अब कर दिखा||

Thanks for reading my words.

Copyright-Vindhya Sharma
To read my Words, in rythem, on politics pls go to- Jaroori, Kejriwal fir se
To read my words, in rythem, on a worried indian father of a young girl pls go to- "3 lakeere"

Tuesday 3 February 2015

meri pankti...



अापस को समझकर साथ साथ आगे बढ़ने की प्रारंभिक कवायद और इसी के साथ बढ़ती नई जिम्मेदारियों की अपनी व्यस्तायें होती हैं | लेकिन इन गुजरते लम्हों के साथ कब दो अलग सांसें एकदूसरे की जरूरत बन जाती हैं पता ही नहीं चलता| निसंदेह इन दोनों के बीच बातों व् विचारों का अपना ही पिटारा होता है पर इस पिटारे में वो एक सुन्दर और नाजुक सी जरूरी बात नीचे की ओर खिसकती चली जाती है, फिर कभी, बाद में बाहर निकलने ले लिए | क्या करें, विवाह संस्था ही ऐसी है हमारे इस समाज की|
आज मन ने फुसलाया कि क्यूूँ प्रतीक्षा करूँ मैं उम्र के पकने की|  मैं इस प्यारी सी फुसलाहट में आकर बाहर निकाल लाई उस पिटारे से वो दिल की बात |
आज आप सभी की साक्षी में, अपने जीवनसाथी को  सप्रेम समर्पित कर रही हूँ  कुछ नई और कुछ पुरानी, उन्ही के लिए लिखी हुई अपनी यह पंक्तियाँ .....



हमराह




नन्हे मुन्ने स्वप्न बुने हैं,
हमने सांझी आँखों में ...

सांझी राह पर बढ़ चले,
हाथ लिए हम हाथों में...

चहूँ ओर से सुरभित पुरवा,
सफर अपना महका रही...

धवल किरणों की तेजस देख,
पथ को उजला बना रही...

हमराह हर निखर चले,
तेरे संग के अहसास से..

राह डगमग भी न खले,
हमसफ़र तेरे साथ से..

सुन युवा न वो होने पाये,
हृदय में तेरे बसा जो बचपन...

मैं भी तुझसे पा जाऊँ,
तुझसा संयम और संवेदन ...

जीवन का हर रंग रुपहला ,
रुचिर बना हर साँझ सवेरा...

तुझ संग नव गीत बने हैं,
और बना संगीत सुनहला...

मन में अब एक आस सरस,
पलछिन में गुजरे उम्र ऐसे...

जैसे झपकी पलक और गुजर लिए,
हँसते खेलते ये चौदह बरस


Copyright-Vindhya Sharma

पुलकित कुमुद 



झुकी इन पलकों के दर्पण में,
अजब से मन के कम्पन थे...

उलझते प्रश्नों कि धड़कन में,
स्वप्नों के मौन वंदन थे...

कैसा जीवन अब रहेगा,
क्या होगा जैसा मन कहेगा?

शांत मन में कलरव था,
सहमता झिझकता वो पल था...

जो तुझ संग नव आगाज हुआ,
तो नव रंगों का आभास हुआ...
 
जीवन पुलकित कुमुद हुआ,
हर सपना मेरा मुग्ध हुआ...
 
मित्र, तेरा जो साथ मिला,
हर राह को परवाज मिला...
 
जाने कब अकुला मन कि तरल हुई,
कैसे चौदह बरस कि कल हुई!!



Copyright-Vindhya Sharma




                           Starry night



Today...let me cherish,
those gone memories...

U came then, hold my hand...

that lil fear but heart's cheer..

a crazy fright, in starry night..

all those gone, when we walked along.


Beneath d sky our dreams fly,


all pleasure flourish in few worries..
this journey goes wid all those..

now all around, the all I found,
so many cheers...on

Twelve lovely years, more than dears!!


Copyright-Vindhya Sharma

Sunday 1 February 2015

केजरीवाल फिर से



                                               केजरीवाल फिर से

आओ लोगों मिलकर चलें, तो दिन हमारे आएंगे...
भाषण के दिन बीत गए अब काम हम करवाएंगे ...

अड़सठ वर्षों  में कितने चेहरे हमने परखे थे...
हमसा न था कोई, सारे ऊंचे पहुंचे अमले थे..

चलो पांच वर्ष दे देखें  उसको, जो हममे से उठ खड़ा हुआ...
उनचास दिन में दिखा गया, है निस्वार्थ भाव से धुला हुआ...

वायदे जो भाषण के बोल रहे, सपने जो अब तक अनमोल रहे..
पूरे वो हो जायेंगे ये विश्वास जगाया है...
'संभव है यह', मिथ्या बोलों से नहीं कर्मों से करके दिखाया है...

हर आम आदमी ने खुद को उससे जोड़ा है...
एक नहीं अनेक उसके कामों का ब्यौरा है..

भ्रष्टाचार से मुक्ति पाने चालू कर दी हेल्पलाइन...
पानी देखो मुफ्त हुआ,  प्रशासन कैसा चुस्त हुआ...

बिजली के आधे दाम हुए, बंद लाल नील निशान हुए..
कच्ची बस्तियों को भी आराम हुआ, जब सीवर का सारा काम हुआ....

आम आदमी का सम्मान किया, देखो ऑटोरिक्शा आम किया...
हज़ारों परमिट और बंटे, हफ्तावसूली के दिन छंटे...

निहाल हुई दिल्ली की कौम, जब ऑडिट हुई डिस्कॉम डिस्कॉम...
करोड़ रुपया ईनाम दिया, शहीद को ऐसा मान दिया...

उनचास दिन का लेखा जोखा भी उसकी पहचान है...
सरल, शिक्षित, सुदृढ़ कजरी, अब हमारा अभिमान है...

एक और मौका उसको देंगे, उस इक गलती को भुलायेंगे...
वोट दे  केजरी को, दिल्ली में हम लाएंगे.. 

 बना CM उसे हम सरकार चलाएंगे...
 अब हम सब  सरकार चलाएंगे...
Thanks for reading.
To read my Words, in rythem, on politics pls go. Mahila suraksha, Jaroori 
Copyright-Vindhya Sharma

तीन लकीरें

हमारी संस्कृति, हमारे रिवाज़, मध्यम वर्गीय परिवार की बड़ी बेटी को उम्र से कुछ पहले ही बड़ा कर देते हैं | सत्रह से अठारह की देहलीज़ पर पड़ते उसके कदम, पिता को चौखट के बाहर खड़े हो, टोह लेने की सूचना देते हैं| सही समय पर उचित वर की आहट पा लेने को आतुर पिता को देखती, बेटी की व्याकुलता बड़ी विचित्र होती है|

कुछ ऐसी ही विचित्रता को मैंने अपनी पंक्तियों में पिरोने का प्रयास किया था, जब उस दौर का स्वयं एहसास किया था | वर को खोजते भटकते अपने पिता को चिंतामुक्त करने की उत्कंठा आज भी याद है मुझे |


लगभग २० वर्ष पूर्व कुछ छुआ था मन को, इस तरह....







                                              तीन लकीरें



 पिता, माथे से तुम्हारे ये तीन लकीरें.... कैसे हटाऊँ ?

क्या वक्त रोक दूँ...
मुमकिन नहीं है....

क्या बदल दूँ समाज... 
ये रीति, ये रिवाज़ ...
वह कठिन है...

क्या तोड़ दूँ कायदे,
ये नियम ये वायदे ...
हाँ की तुमसे आशा नहीं है...

तो... क्या जहाँ छोड़ दूँ...
पर बेटी तुम्हारी बुजदिल नहीं है| 

तुम जो सुझाओ, वही कर जाऊं,
 कहो न पिता... माथे से तुम्हारे...
 ये तीन लकीरें, कैसे हटाऊँ?




Thanks for reading.

Pls my words, in rythem, on woman empowermnt, safety- mahila surksha
Pls read my words, in rythem, on Self respect- Astitav, chote chote sukh
Copyright-Vindhya Sharma

Saturday 31 January 2015

श्रद्धांजलि



तीन नन्हे नन्हे बच्चों के साथ, गर्भ में अपने अजन्मे शिशु को लिए, इक्कीसवें बरस में कदम रखती वो यौवना, जो विधवा हो गई थी, वो "अम्माजी" थीं मेरी| पूर्ण अशिक्षित अम्माजी के ऊपर असहनीय, अतुलनीय विपदाओं का वज्र ऐसा पड़ा की सारे जहां के कष्ट रो पड़े | वह महिला जो कभी घूँघट के बाहर न झांकी थी, चौके के बाहर न निकली थी और न ही जिसके पास कोई आर्थिक सम्बल था, उसने जीवन की हर गहरी खाई को पाटते हुए, अपने बच्चों को बेडा पार पहुँचाया | पर यह संघर्ष इतना दर्द दे गया की वो मुस्कुराने में डरने लगीं और मुझे लगा की उनकी संवेदनाएं लुप्त हो गई| अपनी इस गलती का अहसास कर जब तक मेरी सुप्त भावनाएं जागीं ...... देर हो चुकी थी....

श्रद्धांजलि 

संघर्षों का जीवन तुम्हारा, संघर्ष भरा ही अंत रहा...
कष्टों को तुमने जीया, न इक पल भी विश्राम किया...

दुःख गिरि बन जब हुआ खड़ा, देख साहस डिग पड़ा...
विधाता का निर्मम खेल रहा, उसको तुमने खूब सहा...

अनेक व्यथा संताप लिए, संतति के लिए सब जाप किये...
रख पीड़ायें अपने लिए, उन्नत जीवन हमको दिए...

आज अम्माजी तुम चली गईं, यादें सब पीछे छोड़ गईं...
तुम गुणों की खान थी, कभी हमने नहीं पहचान की...

मन बहुत पछता रहा, 
अब समझ सब आ रहा...
कि...
क्यूँ तुमने जीवन जीया,
क्यूँ कहा सबकुछ खरा खरा...

सुख को क्यूँ  अस्वीकार किया, 
क्यूँ मन ही में सबको प्यार किया... 

क्यूँ ताउम्र खाली हाथ रहीं 
और क्यूँ नीम का वृक्ष बनी...

अब नयन अश्रू से पूर्ण हैं
 पर हम तुमसे बड़े दूर हैं...

बड़ा कटु अहसास है, 
कभी न मिलने कि आस है...

शीश नवा तुम्हे नमन करते,
श्रद्धा कि अंजुली अर्पण करते...

करबद्ध ईश का आहवान करें,
शीघ्र मोक्ष प्रदान करें...

अन्यथा...
नया तन और मन मिले, 
जीवन की हर उमंग मिले...

नव तुमको जल्द जनम मिले, 
सब खुशियों के संग मिले
सब खुशियों के संग मिले


Copyright-Vindhya Sharma

Thursday 29 January 2015

Chote Chote Sukh

"व्यवस्था विवाह" (Arrange marriage) की व्यवस्था उस युवती के लिए बड़ी कष्टदायक हो जाती होगी, शायद, जो की एक रूढ़िवादी मध्यमवर्गीय परिवार की परवरिश तो है पर कुछ चित्र उकेर कर उनमे चुपचाप रंग भर लेती है| अपनी इस चित्रकारी को, किसी को भी दिखाने का साहस नहीं पाया होता उसने |

आज से सही डेढ़ दशक पूर्व, मैंने भी अपने उस युवा रंगीन सपने को झपकते हुआ सा महसूस किया था...खुद को सहमा हुआ सा महसूस किया था|

आशंकित मेरे इस मन ने अपना यह डर मेरे दिल को बताया था, पंद्रह वर्ष पूर्व, कुछ इस तरह.....


छोटे छोटे सुख



छोटे छोटे सुख ढूंढे थे, 
मैने कई अभावों में....

बड़े जतन से और यतन से, 
थे फूल बिछाये राहों में ....

कुछ सपने बुने और खुशियां चुनी, 
फिर लौ जलाई चरागों में...

इक नक्श उकेरा, उसका चेहरा, 
सजा लिया था निगाहों में....

अब खोते सुख, क्यूूँ उड़ते फूल,
बुझती लौ, वो चेहरा…. 
डरा रहा है ख्वावों में....

ध्यान धरूँ और याद करूँ मै, 
हुई गलती कहाँ हिसाबों में ....

अनबुझ पहेली सुलझाती खुद, 
उलझ गई सवालों में... 


सोच रही, यही खोज रही मैं ….
क्यूूँ आज घुटता दम है मेरा,
वक्त की कसती बाँहों  में....

छोटे छोटे सुख ढूंढे थे मैने कई अभावों में!!


Copyright-Vindhya Sharma