Thursday 10 August 2017


कारे बदरा



घनघोर काली घटायें और रिमझिम बरसते मेघ किसी के भी मन को रोमांचित कर देते हैं...खासकर तब जब की लम्बी प्रतीक्षा के बाद इन्हे देखने का अवसर मिलता हो| कल से ऐसे ही सुहाने मौसम से  मन प्रफुल्लित और तरोताज़ा है...और हर बरसती फुहार के साथ साथ, कुछ समय पहले लिखी हुई पंक्तियाँ भी स्वतः ही मुख से गीत बनकर निकल रही हैं| अपनी यह उमंग आपसे साझा कर रही हूँ..माध्यम है यह मेरी यह पंक्ति...










कारे कारे, प्यारे बदरा, क्यों देर से आये रे...
रिमझिम करती बूंदों को थे क्यों हमसे छिपाये रे...

तकती राह कितनी अँखियाँ थीं,
चिंतित मन में बतियाँ थीं,
खग-विहग, ताल-तलैया, 
सबकी बेचैन रतियाँ थीं||

जो आये अब तो ऐसे आये, मयूर मन ये बन जाये रे,
तेरी ठंडी ठंडी पवन के झोंके, मेरा रोम-रोम हर्षाये रे ||

कारे कारे, प्यारे बदरा, क्यों देर से आये रे...
रिमझिम करती बूंदों को थे क्यों हमसे छिपाये रे..

जो आये अब तो जाना मत तुम
दौलत अपनी कर दो न अर्पण,
टिको, रहो, ले लो तो कुछ दम,
तृप्त कर दो न सृष्टि का हर कण ||

तेरी नन्ही नन्ही फुहार की कलियाँ,
सौंधी सुगंध उड़ाए रे...
मन का पंछी चहकता उड़ता,
जब सब गुलशन बन जाये रे...
कारे कारे प्यारे बदरा, क्यों देर से आये रे||