Friday 2 October 2015

खुद संग


 खुद संग


कुछ अहसासों की भूमिका नहीं दी जाती, सिर्फ अहसास किया जाता है| आप भी करिये प्रयास अहसास करने का कि खुद से मिलकर कभी कभी कैसे दृष्टि और दृष्टिकोण पूरा ही बदल जाता है, कुछ खोया हुआ पास ही मिल जाता है तो जो निकट ही था वो भ्रम साबित हो जाता है...इसलिए खुद से मिलते रहना बड़ा जरूरी होता है| कुछ ऐसे ही अनुभव को लिए हुए है मेरी यह पंक्ति....








इतनी उलझन खुद से मिल,
न पहले कभी एहसास हुई...

कुछ शिकवे हुए, कुछ गिले हुए,
कुछ बहस मुद्दत बाद हुई...

वो लम्हा इक इक गुजर लिया,
बीते पल की जब आवाज़ हुई...

कुछ फिरी समझ क्यों नादानी में,
क्यों पावन मन से घात हुई...

लरज़ते-गरज़ते शुबहों से,
न कश्मकश तो आज़ाद हुई...

पर...
जब खुद संग बिताये कुछ कुछ पल,
जब खुद से कुछ दिन बात हुई...

तो पहचान हो आई वो हर मुस्कान,
इस उदासी से थी जो उदास हुई ||


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