मेरे चाचाजी चले गए, बहुत दूर, इतना कि जहाँ से कोई वापस नहीं आ सकता, कभी भी नहीं! कुछ आता है तो केवल यादें! जो कभी नही जाती, कहीं नहीं जाती! चाचाजी उम्र से बहुत पहले चले गए, हम तो विश्वास ही नहीं कर पाए न ही स्वीकार कर सके हैं, आज तक! ईश्वर कि इच्छा, उसकी रचना कोई भी तो नहीं जान सकता, सो हम भी नहीं जान सके! जान पाए तो बस यही कि ईश्वर भी क्रूर होता है, अप्रिय हो जाता है कभी कभी! हर त्यौहार, जीमण, मेल-मिलाप, खाने का स्वाद..और भी न जाने कितनी ही जीवन की उमंगें और जीवन के रस....सब नीरस हो गए चाचाजी के जाने के बाद! सभी अनुभूतियों को तो भूमिका में लिखा नहीं जा सकता....बस यही कहूँगी की बहुत याद आती है चाचाजी की...उन्ही को याद कर रही है यह मेरी पंक्ति….
मेरे प्यारे चाचाजी
इस विशाल वट के सिंचन-तंत्र थे..
तुम हंसी ख़ुशी के सिद्ध मंत्र थे!
वो उत्तास, साहस के वृतांत पठित हैं..
तुम्हारी सरल बुद्धि के निशां अमिट हैं!
तुम्हारी सरल बुद्धि के निशां अमिट हैं!
भ्रातृ-भक्ति की मिसाल छोड़ गए,
कितने किस्से-कहानी कमाल छोड़ गए!
कितने किस्से-कहानी कमाल छोड़ गए!
कहाँ खोये हो, कहाँ जा कर लीन हुए …
आखिर क्यों इतने तल्लीन हुए !
आखिर क्यों इतने तल्लीन हुए !
अब दिवाली अंधियार हो गई,
होली भी खुशहाल न रही!
होली भी खुशहाल न रही!
सब तीज त्यौहार बदरंग हुए,
तब संयुक्त थे, अब भंग हुए!
तब संयुक्त थे, अब भंग हुए!
न पकवानो में स्वाद रहा,
न मनुहारों का प्रयास रहा!
न मनुहारों का प्रयास रहा!
सबकुछ नीरस अनमना है,
तुम बिन जीवन सूना घना है!
तुम बिन जीवन सूना घना है!
चाचाजी मेरे प्यारे प्यारे…
क्यूँकर इतनी दूर गए हो,
दिखते नहीं, क्या रूठ गए हो!
दिखते नहीं, क्या रूठ गए हो!
जाना तुम्हारा मंजूर नहीं है,
गलत है की ईश्वर क्रूर नहीं है!
गलत है की ईश्वर क्रूर नहीं है!
आ जाओ न, यूँ तस्वीर न बनो,
झपको ना पलकें, यूँ पीर न बनो!!
झपको ना पलकें, यूँ पीर न बनो!!